आईसाहेब रमाताई आम्बेडकर
प्रत्येक महापुरुष के पीछे उसकी पत्नी का बड़ा हाथ होता है.पत्नी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो शायद, वह व्यक्ति, महापुरुष ही न बने.आईसाहेब रमाताई आंबेडकर इसी तरह के त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थी.अक्सर महापुरुष की दमक से सामने उसका घर-परिवार और घरवाली पीछे छूट जाते हैं. क्योंकि, इतिहास लिखने वालों की नजर महापुरुष पर केन्द्रित होती है.रमाताई के बारे में भी ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया है.
रमाबाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वणन्द गावं में सन 1899 में हुआ था. इनके पिता का नाम भीकू धुत्रे और माँ का नाम रुक्मणी था। महाराष्ट्र में कहीं-कही गावं का नाम भी जोड़ने का रिवाज है। इस रिवाज के अनुसार उन्हें भीकू वणनंदकर के नाम से भी पुकारा जाता था। भीकू वणनंदकर परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से कर पाते थे। वे कुलीगिरी का काम करते थे।
रमाबाई के बचपन का नाम रामी था। रामी की दो बहने और एक भाई था। बड़ी बहन गौरा और छोटी का नाम मीरा था। चारों भाई-बहनों में शंकर सबसे छोटा था। गौरा का ब्याह हो चूका था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई में आ कर रहने लगे थे। ये लोग भायखला की चाल में रहते थे।
रामी का विवाह 9 वर्ष की उम्र में सुभेदार रामजी सकपाल के सुपुत्र भीमराव आंबेडकर से सन 1906 में हुआ था। भीमराव की उम्र उस समय 14 वर्ष थी। तब, वह 10 वी कक्षा में पढ़ रहे थे। शादी के बाद रामी का नाम रमा हो गया था. शादी के पहले रमा बिलकुल अनपढ़ थी. किन्तु ,शादी के बाद भीमराव आंबेडकर ने उसे साधारण लिखना-पढ़ना सिखा दिया था. वह अपने हस्ताक्षर कर लेती थी।
रामजी सकपाल के परिवार में भीमराव के दो बड़े भाई आनंद राव, बलराम तथा तुलसा और मंजुला दो बहने थी. बालाराम की पत्नी का नाम लक्षी था. मुकुंदराव, बालाराम का पुत्र था। डा. आम्बेडकर रमा को 'रामू ' कह कर पुकारा करते थे।
भीमराव रामजी आम्बेडकर की सन 1924 तक पांच संताने हुई थी। बड़ा पुत्र यशवंत था। यशवंतराव का जन्म सन 1912 में हुआ था। गंगाधर नाम का पुत्र ढाई साल की अल्पायु में ही चल बसा था। इसके बाद रमेश नाम का पुत्र भी चल बसा था। इंदु नामक एक पुत्री हुई मगर, वह भी बचपन में ही चल बसी थी। सबसे छोटा पुत्र राजरतन की मृत्यु 19 जुला. 1926 को हुई थी।
चारों बच्चों की मृत्यु का कारण ये था कि बाबा साहब स्वतन्त्र जीविकोपार्जन के काम की तलाश में मारे-मारे फिर रहे थे। धनाभाव के कारण घर में हालत बहुत खराब थी। जब पेट ही पूरा नहीं भर रहा हो तो बच्चों की बीमारी के इलाज के लिए पैसे कहाँ से लाते ? यही कारण था कि यशवंत का इलाज भी ठीक से नहीं पाया था।
गंगाधर के मृत्यु की ह्रदय विदारक घटना का जिक्र करते हुए एक बार बाबा साहब ने बतलाया था कि ठीक से इलाज न हो पाने से जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढकने के लिए गली के लोगों ने नया कपडा लाने को कहा। मगर, मेरे पास उतने पैसे नहीं थे। तब रमा ने अपनी साड़ी से कपडा फाड़ कर दिया था। वही मृत देह को ओढ़ा कर लोग शमशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफना आए।
बाबा साहब के सबसे बड़े पुत्र यशवंत राव ही जीवित रहे थे। वह भी बीमार-सा रहता था। रमा को और बच्चे की चाह थी मगर, अब और बच्चा होने से डाक्टर के अनुसार, उसे टी बी होने का खतरा था। इस तारतम्य में डाक्टर ने बाबा साहब को सावधानी बरतने की सलाह दी थी।
बडौदा की नौकरी के समय भीमराव के पिताजी की तबियत ठीक नहीं रहती थी। रमाई दिन-रात ससुर की सेवा और इलाज में लगी रही। लम्बी बीमारी के बाद बडौदा से भीमराव के लौटने के पहले ही वे चल बसे थे।
भीमराव आम्बेकर हमेशा ज्ञानार्जन में रत रहते थे। ज्ञानार्जन की तड़प उन में इतनी थी कि घर और परिवार का जरा भी उन्हें ध्यान नहीं रहता था। रमा इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई बाधा न हो। वह पति के स्वास्थ्य और सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी।
बाबा साहब पढ़ते समय प्राय: अन्दर से दरवाजा बंद का देते थे। रमा कई बार जोर-जोर से दरवाजा खट खटाती परन्तु दरवाजा नहीं खुलता तब थक हार कर वह लौट जाती। इस चक्कर में कई बार भूखे ही रह जाती थी। पति भूखा हो और वह भोजन कर ले, उसे मंजूर नहीं था। डाक्टर की सलाह अनुसार बाबा साहब भी रमा से दूरी बना कर ही रहते थे। कई बार घर नहीं आते थे, आफिस में ही रहते थे।
रमा की बड़ी बहन गौरा, छोटा भाई शंकर, विधवा जेठानी लक्ष्मी और उसका पुत्र मुकुंद साथ में ही रहते थे। आंबेडकर के शुरू का जीवन लम्बे आर्थिक तंगी का रहा था। शंकर कपड़ा मिल में मजदूरी करता था। तंगी की हालत ये थी कि दिन भर कोई मजदूरी करने के बाद साम को वह घर से तीन-चार की मी दूर तक जाकर गोबर बिन कर लाती थी। गोबर से घर में वह कंडे थापती और फिर उन्हें वह बेच आती। पास-पडोस की स्त्रियाँ टोकती कि बैरिस्टर की पत्नी होते हुए भी वह सिर पर गोबर ढोती है ! इस पर कहती कि घर का काम करने में लज्जा की क्या बात है ? रमाताई, घर का खर्च बड़ी किफायती से चलाती थी। बाबा साहब की पक्की नौकरी न होने से उसे काफी दिक्कत होती थी।
रमा एक सीधी-सादी और कर्तव्य-परायण स्त्री थी। पति और परिवार की सेवा करना वह अपना धर्म समझती थी। चाहे जो भी विपत्ति हो, किसी से सहायता लेना उसे गंवारा नहीं था। ऐसे कई मौके आए जब परिचितों ने उन्हें मदद की पेशकश की। किन्तु , रमा ने लेने से इंकार कर दिया।
रमाताई संतोष,सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी। डा. आंबेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाताई घर खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थी। क्योंकि, उसे मालूम था कि डा. आंबेडकर को उच्च शिक्षा के लिए पैसे की जरुरत होती है
बाबा साहब को पुस्तकें खरीदने का बेहद शौक था। वे इस मामले में पैसों की परवाह किए बिना पुस्तकें खरीद लेते थे। एक बार इंग्लैंड के कानून का पांच खंडों वाला ग्रन्थ उन्होंने 500 रूपए में खरीद लिया। घर आ कर खुश होते हुए वे रमा को बताने लगे कि कैसे बहुत ही सस्ते में उन्होंने ये पुस्तकें खरीदी है ? पुस्तके देख रमा ने कहा कि पति को पत्नी और घर-परिवार पर भी ध्यान देना चाहिए, ऐसा कुछ नहीं लिखा है क्या इन पुस्तकों में ? रमा उलाहने पर बाबा साहब मुस्करा देते।
रमाताई सदाचारी और धार्मिक प्रवृति की गृहणी थी। उसे पंढरपुर जाने की बहुत इच्छा रही। महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मनी का प्रसिध्द मंदिर है। मगर, तब हिन्दू-मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मनाही थी। आंबेडकर, रमा को समझाते थे कि ऐसे मन्दिरों में जाने से उनका उध्दार नहीं हो सकता जहाँ, उन्हें अन्दर जाने की मनाही हो। मगर, रमा नहीं मानती थी। एक बार रमा के बहुत जिद करने पर बाबा साहब पंढरपुर ले ही गए। किन्तु अछूत होने के कारण उन्हें मन्दिर के अन्दर प्रवेश नहीं करने दिया गया था।
डा. आम्बेडकर के आन्दोलनों में महिलाएं जम कर भाग लेती थी.रमाताई ने ऐसे कई आन्दोलनों और सत्याग्रहों में शिरकत की.दलित समाज के लोग रमाताई को 'आईसाहेब' और डा. आम्बेडकर को 'बाबासाहब' कह कर पुकारा थे. तब, बाबा साहब मुम्बई दादर के मकान राजगृह मे रह्ते द जो रेल्वे लाइन के निकट था। एक बार बाबासाहब के मित्र ने पुछ लिया कि उन्होने अपने रहने के लिए स्थान रेल्वे लाइन के इतना निकट क्यों चुना ? क्या इससे आपके ध्यान मे विघ्न नहीं पहुन्चता और पढाई मे बाधा नहीं पहुचती ? इस पर बाबा साहब कुछ कहते इसके पहले ही पास खडी रमा ने जवाब दिया था कि वे बेकार कि बात क्यों कर रहे है ? बडी मुश्किल से तो उन्होने मकान बनाया है। जहाँ तक बाबा साहब की बात है,
पिता की मृत्यु के बाद भीमराव उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं. वे 1914 से 1923 तक करीब 9 वर्ष विदेश में रहते हैं.
इधर, ससुर की दिन-रात सेवा से जुझते-जुझते रमाताई खुद बीमार रहने लगी थी. बीमारी के हालत में भी रमाताई , डा. आंबेडकर की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी.उसे अपने स्वाथ्य की उतनी चिंता नहीं होती थी जितनी के पति को घर में आराम पहुँचाने की
डा. आंबेडकर अपने कामों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण रमाताई और घर पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे. विदेश में रहने के बाद जब वे घर आते हैं तब वे रामी को बूरी तरह अस्वस्थ पाते हैं.
रमा ताई काफी लम्बे समय तक बीमार रही और अंतत: 27 मई 1935 में डा. आंबेडकर को अकेला छोड़ इस दुनिया से विदा हो गई. रमाताई के मृत्यु से डा. आंबेडकर को गहरा आघात लगा. वे बहुत रोये थे.
- @ Amrit Ukey
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दीन दुबळ्याची माऊली माता रमाई जयंतीनिमित्त रमाई मातेस कोटि कोटि वंदन तसेच विनम्र अभिवादन...... महामाता रमाई यांच्या जयंतीनिमित्त आपणास सर्वास मंगलमय शुभेच्छा...
जय भीम
लव भीम
नमो बुद्धाय
प्रत्येक महापुरुष के पीछे उसकी पत्नी का बड़ा हाथ होता है.पत्नी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो शायद, वह व्यक्ति, महापुरुष ही न बने.आईसाहेब रमाताई आंबेडकर इसी तरह के त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थी.अक्सर महापुरुष की दमक से सामने उसका घर-परिवार और घरवाली पीछे छूट जाते हैं. क्योंकि, इतिहास लिखने वालों की नजर महापुरुष पर केन्द्रित होती है.रमाताई के बारे में भी ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया है.
रमाबाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वणन्द गावं में सन 1899 में हुआ था. इनके पिता का नाम भीकू धुत्रे और माँ का नाम रुक्मणी था। महाराष्ट्र में कहीं-कही गावं का नाम भी जोड़ने का रिवाज है। इस रिवाज के अनुसार उन्हें भीकू वणनंदकर के नाम से भी पुकारा जाता था। भीकू वणनंदकर परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से कर पाते थे। वे कुलीगिरी का काम करते थे।
रमाबाई के बचपन का नाम रामी था। रामी की दो बहने और एक भाई था। बड़ी बहन गौरा और छोटी का नाम मीरा था। चारों भाई-बहनों में शंकर सबसे छोटा था। गौरा का ब्याह हो चूका था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई में आ कर रहने लगे थे। ये लोग भायखला की चाल में रहते थे।
रामी का विवाह 9 वर्ष की उम्र में सुभेदार रामजी सकपाल के सुपुत्र भीमराव आंबेडकर से सन 1906 में हुआ था। भीमराव की उम्र उस समय 14 वर्ष थी। तब, वह 10 वी कक्षा में पढ़ रहे थे। शादी के बाद रामी का नाम रमा हो गया था. शादी के पहले रमा बिलकुल अनपढ़ थी. किन्तु ,शादी के बाद भीमराव आंबेडकर ने उसे साधारण लिखना-पढ़ना सिखा दिया था. वह अपने हस्ताक्षर कर लेती थी।
रामजी सकपाल के परिवार में भीमराव के दो बड़े भाई आनंद राव, बलराम तथा तुलसा और मंजुला दो बहने थी. बालाराम की पत्नी का नाम लक्षी था. मुकुंदराव, बालाराम का पुत्र था। डा. आम्बेडकर रमा को 'रामू ' कह कर पुकारा करते थे।
भीमराव रामजी आम्बेडकर की सन 1924 तक पांच संताने हुई थी। बड़ा पुत्र यशवंत था। यशवंतराव का जन्म सन 1912 में हुआ था। गंगाधर नाम का पुत्र ढाई साल की अल्पायु में ही चल बसा था। इसके बाद रमेश नाम का पुत्र भी चल बसा था। इंदु नामक एक पुत्री हुई मगर, वह भी बचपन में ही चल बसी थी। सबसे छोटा पुत्र राजरतन की मृत्यु 19 जुला. 1926 को हुई थी।
चारों बच्चों की मृत्यु का कारण ये था कि बाबा साहब स्वतन्त्र जीविकोपार्जन के काम की तलाश में मारे-मारे फिर रहे थे। धनाभाव के कारण घर में हालत बहुत खराब थी। जब पेट ही पूरा नहीं भर रहा हो तो बच्चों की बीमारी के इलाज के लिए पैसे कहाँ से लाते ? यही कारण था कि यशवंत का इलाज भी ठीक से नहीं पाया था।
गंगाधर के मृत्यु की ह्रदय विदारक घटना का जिक्र करते हुए एक बार बाबा साहब ने बतलाया था कि ठीक से इलाज न हो पाने से जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढकने के लिए गली के लोगों ने नया कपडा लाने को कहा। मगर, मेरे पास उतने पैसे नहीं थे। तब रमा ने अपनी साड़ी से कपडा फाड़ कर दिया था। वही मृत देह को ओढ़ा कर लोग शमशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफना आए।
बाबा साहब के सबसे बड़े पुत्र यशवंत राव ही जीवित रहे थे। वह भी बीमार-सा रहता था। रमा को और बच्चे की चाह थी मगर, अब और बच्चा होने से डाक्टर के अनुसार, उसे टी बी होने का खतरा था। इस तारतम्य में डाक्टर ने बाबा साहब को सावधानी बरतने की सलाह दी थी।
बडौदा की नौकरी के समय भीमराव के पिताजी की तबियत ठीक नहीं रहती थी। रमाई दिन-रात ससुर की सेवा और इलाज में लगी रही। लम्बी बीमारी के बाद बडौदा से भीमराव के लौटने के पहले ही वे चल बसे थे।
भीमराव आम्बेकर हमेशा ज्ञानार्जन में रत रहते थे। ज्ञानार्जन की तड़प उन में इतनी थी कि घर और परिवार का जरा भी उन्हें ध्यान नहीं रहता था। रमा इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई बाधा न हो। वह पति के स्वास्थ्य और सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी।
बाबा साहब पढ़ते समय प्राय: अन्दर से दरवाजा बंद का देते थे। रमा कई बार जोर-जोर से दरवाजा खट खटाती परन्तु दरवाजा नहीं खुलता तब थक हार कर वह लौट जाती। इस चक्कर में कई बार भूखे ही रह जाती थी। पति भूखा हो और वह भोजन कर ले, उसे मंजूर नहीं था। डाक्टर की सलाह अनुसार बाबा साहब भी रमा से दूरी बना कर ही रहते थे। कई बार घर नहीं आते थे, आफिस में ही रहते थे।
रमा की बड़ी बहन गौरा, छोटा भाई शंकर, विधवा जेठानी लक्ष्मी और उसका पुत्र मुकुंद साथ में ही रहते थे। आंबेडकर के शुरू का जीवन लम्बे आर्थिक तंगी का रहा था। शंकर कपड़ा मिल में मजदूरी करता था। तंगी की हालत ये थी कि दिन भर कोई मजदूरी करने के बाद साम को वह घर से तीन-चार की मी दूर तक जाकर गोबर बिन कर लाती थी। गोबर से घर में वह कंडे थापती और फिर उन्हें वह बेच आती। पास-पडोस की स्त्रियाँ टोकती कि बैरिस्टर की पत्नी होते हुए भी वह सिर पर गोबर ढोती है ! इस पर कहती कि घर का काम करने में लज्जा की क्या बात है ? रमाताई, घर का खर्च बड़ी किफायती से चलाती थी। बाबा साहब की पक्की नौकरी न होने से उसे काफी दिक्कत होती थी।
रमा एक सीधी-सादी और कर्तव्य-परायण स्त्री थी। पति और परिवार की सेवा करना वह अपना धर्म समझती थी। चाहे जो भी विपत्ति हो, किसी से सहायता लेना उसे गंवारा नहीं था। ऐसे कई मौके आए जब परिचितों ने उन्हें मदद की पेशकश की। किन्तु , रमा ने लेने से इंकार कर दिया।
रमाताई संतोष,सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी। डा. आंबेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाताई घर खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थी। क्योंकि, उसे मालूम था कि डा. आंबेडकर को उच्च शिक्षा के लिए पैसे की जरुरत होती है
बाबा साहब को पुस्तकें खरीदने का बेहद शौक था। वे इस मामले में पैसों की परवाह किए बिना पुस्तकें खरीद लेते थे। एक बार इंग्लैंड के कानून का पांच खंडों वाला ग्रन्थ उन्होंने 500 रूपए में खरीद लिया। घर आ कर खुश होते हुए वे रमा को बताने लगे कि कैसे बहुत ही सस्ते में उन्होंने ये पुस्तकें खरीदी है ? पुस्तके देख रमा ने कहा कि पति को पत्नी और घर-परिवार पर भी ध्यान देना चाहिए, ऐसा कुछ नहीं लिखा है क्या इन पुस्तकों में ? रमा उलाहने पर बाबा साहब मुस्करा देते।
रमाताई सदाचारी और धार्मिक प्रवृति की गृहणी थी। उसे पंढरपुर जाने की बहुत इच्छा रही। महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मनी का प्रसिध्द मंदिर है। मगर, तब हिन्दू-मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मनाही थी। आंबेडकर, रमा को समझाते थे कि ऐसे मन्दिरों में जाने से उनका उध्दार नहीं हो सकता जहाँ, उन्हें अन्दर जाने की मनाही हो। मगर, रमा नहीं मानती थी। एक बार रमा के बहुत जिद करने पर बाबा साहब पंढरपुर ले ही गए। किन्तु अछूत होने के कारण उन्हें मन्दिर के अन्दर प्रवेश नहीं करने दिया गया था।
डा. आम्बेडकर के आन्दोलनों में महिलाएं जम कर भाग लेती थी.रमाताई ने ऐसे कई आन्दोलनों और सत्याग्रहों में शिरकत की.दलित समाज के लोग रमाताई को 'आईसाहेब' और डा. आम्बेडकर को 'बाबासाहब' कह कर पुकारा थे. तब, बाबा साहब मुम्बई दादर के मकान राजगृह मे रह्ते द जो रेल्वे लाइन के निकट था। एक बार बाबासाहब के मित्र ने पुछ लिया कि उन्होने अपने रहने के लिए स्थान रेल्वे लाइन के इतना निकट क्यों चुना ? क्या इससे आपके ध्यान मे विघ्न नहीं पहुन्चता और पढाई मे बाधा नहीं पहुचती ? इस पर बाबा साहब कुछ कहते इसके पहले ही पास खडी रमा ने जवाब दिया था कि वे बेकार कि बात क्यों कर रहे है ? बडी मुश्किल से तो उन्होने मकान बनाया है। जहाँ तक बाबा साहब की बात है,
पिता की मृत्यु के बाद भीमराव उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं. वे 1914 से 1923 तक करीब 9 वर्ष विदेश में रहते हैं.
इधर, ससुर की दिन-रात सेवा से जुझते-जुझते रमाताई खुद बीमार रहने लगी थी. बीमारी के हालत में भी रमाताई , डा. आंबेडकर की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी.उसे अपने स्वाथ्य की उतनी चिंता नहीं होती थी जितनी के पति को घर में आराम पहुँचाने की
डा. आंबेडकर अपने कामों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण रमाताई और घर पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे. विदेश में रहने के बाद जब वे घर आते हैं तब वे रामी को बूरी तरह अस्वस्थ पाते हैं.
रमा ताई काफी लम्बे समय तक बीमार रही और अंतत: 27 मई 1935 में डा. आंबेडकर को अकेला छोड़ इस दुनिया से विदा हो गई. रमाताई के मृत्यु से डा. आंबेडकर को गहरा आघात लगा. वे बहुत रोये थे.
- @ Amrit Ukey
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